भारत का इतिहास उठाकर देखें तो हम पाएंगे कि इसके कई पन्ने युद्ध की गाथाओं से पटे पड़े हैं. यह ‘युद्ध’ बताते हैं कि हमें न सिर्फ़ आजादी की लड़ाई के लिए बल्कि अपने अस्तित्व की लड़ाई के लिए भी कई बार मैदान-ए-जंग में उतरना पड़ा है. अक्टूबर 1947 में हुआ भारत-पाक का पहला युद्ध एक ऐसा ही पन्ना है, जिसे खोलते ही ढ़ेर सारे ज़ख्म खुद-ब-खुद हरे हो जाते हैं. तो आइये ज़रा नज़दीक से इस पन्ने के अक्षरों को पढ़ने की कोशिश करते हैं:
बंटवारे ने लिखी थी पहले युद्ध की पटकथा
15 अगस्त 1947 को देश की आजादी के साथ जब भारत को दो भागों में बांटने की बात आई तो लोग विरोध में खड़े हो गए, लेकिन यह विरोध इतना मजबूत नहीं था कि भारत का बंटवारा रोक पाता. परिणाम स्वरुप एक नया देश बना दिया गया जिसे नाम दिया गया पाकिस्तान.
बंटवारे के चलते देश में जो हिंसा हुई उसे शायद ही कोई भुला पाए. इसमें लाखों लोगों की जानें गई, तो हजारों घर तबाह हो गए. भारत इस सबसे उबरने की कोशिश करता हुआ एक नई राह की तरफ बढ़ रहा था, पर पाकिस्तान ने नापाक इरादों के साथ आजादी के दो महीने बाद ही जम्मू कश्मीर पर हमला कर दिया, जिसने बाद में युद्ध का रुप ले लिया.
कश्मीर पर कब्जा चाहता था पाकिस्तान
पाकिस्तान ने हमले के लिए जम्मू कश्मीर को चुना, इसके पीछे की वज़ह यह थी कि उस समय जम्मू कश्मीर एक आजाद रियासत था, जिसे पाकिस्तान अपने कब्जे में लेना चाहता था. कश्मीर के महाराजा हरि सिंह अपनी रियासत को न तो पाकिस्तान में शामिल करना चाहते थे, न तो भारत में. वह जम्मू कश्मीर को आजाद मुल्क रखना चाहते थे. इसलिए उन्होंने पाकिस्तानी हमले से बचने के लिए भारत से मदद मांगी. भारत मदद के लिए तैयार था, लेकिन उसका कहना था कि जब तक जम्मू कश्मीर भारत में अपना विलय नहीं कर लेता उसके लिए मदद करना मुश्किल होगा. हालात को समझते हुए
जम्मू कश्मीर के आखिरी महाराजा, हरि सिंह ने अपनी रियासत को भारत में शामिल करने के समझौते पर अपने दस्तखत कर दिये. जिसके साथ ही जम्मू – कश्मीर भारत का एक अहम हिस्सा बन गया, पर पाकिस्तान इस विलय को मानने के लिए तैयार नहीं था, इसलिए पाकिस्तान ने युद्ध का रास्ता चुना.
कबाइलों के वेश में पाकिस्तानियों ने किया था हमला
कब्जे की नीयत से पाकिस्तान ने 22 अक्तूबर, 1947 को जम्मू कश्मीर पर आक्रमण कर दिया था. हैरान करने वाली बात तो यह थी कि हमला करने वाले वर्दीधारी पाकिस्तानी सैनिक नहीं थे, बल्कि कबाइली थे, और कबाइलियों के साथ थे उन्हीं के वेश में पाकिस्तानी सेना के अधिकारी. उनके शरीर पर सेना की वर्दी भले ही नहीं थी, लेकिन हाथों में बंदूकें, मशीनगनें और मोर्टार थे. पहले हमला सीमांत स्थित नगरों दोमल और मुजफ्फराबाद पर हुआ. इसके बाद गिलगित, स्कार्दू, हाजीपीर दर्रा, पुंछ, राजौरी, झांगर, छम्ब और पीरपंजाल की पहाड़ियों पर कबाइली हमला हुआ. इस अभियान को “आपरेशन गुलमर्ग’ नाम दिया गया.
ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह ने बचाया था कश्मीर को
चूंकि जम्मू कश्मीर के राजा हरि सिंह की सहमति के बाद जम्मू कश्मीर भारत का हिस्सा हो चुका था, इसलिए हथियारों से लैश पाकिस्तानी कबाइली ने जब मुजफ्फराबाद में अपना तांडव शुरु किया तो भारत की तरफ से ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह उनसे लोहा लेने के लिए आगे आए. कबाइली मुजफ्फराबाद से आगे बढ़े तो उन्हें रोकने के लिए ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह ने अपने साथियों के साथ मोर्चा संभालते हुए सबसे पहले उस पुल को ध्वस्त कर दिया जिससे उनको आगे बढ़ना था. हालांकि इस
मुठभेड़ में जाबाज ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह को दुश्मन की एक गोली ने जमीन पर गिरा दिया, लेकिन उनके हौसले आसमान पर थे, उन्होंने तीन दिन तक दुश्मन का कड़ा मुकाबला करते हुए कश्मीर पर रातों रात कब्जा करने की पाकिस्तान की मंशा पर पानी फेर दिया था.
इस महान पराक्रम के लिए ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह को शहादत के बाद भारत सरकार ने महावीर चक्र से सम्मानित किया था.
बेकार नहीं गई ब्रिगेडियर सिंह की शहादत
राजेन्द्र सिंह की शहादत के बाद कबाइली आगे बढ़े तो बारामूला में कर्नल रंजीत राय के नेतृत्व में सिख बटालियन ने कबाइली के रूप में पाकिस्तानी सेना को कड़ी चुनौती दी. सेना बहादुरी से लड़ी लेकिन बारामूला और पट्टन शहरों को नहीं बचा पाई. बारामूला में कर्नल राय शहीद हो गए. बाद में उन्हें महावीर चक्र से अलंकृत किया गया. उधर श्रीनगर की वायुसेना पट्टी की ओर तेजी से बढ़ रहे हमलावरों को 4 कुमाऊं रेजीमेंट के मेजर सोमनाथ शर्मा के नेतृत्व में मात्र एक कम्पनी ने रोका. इस कार्रवाई में
मेजर शर्मा शहीद जरुर हो गए, लेकिन उन्होंने कबाइलियों को आगे नहीं बढ़ने दिया. आखिरकार भारतीय सेना नवम्बर का महीना आते-आते कबाइलियों को घाटी से खदेड़ने में कामयाब रही. मेजर शर्मा को इस युद्ध में उनके रणकौशल के लिए मरणोपरान्त परमवीर चक्र दिया गया था.
लेकिन, पाकिस्तान बाज न आया…
पाकिस्तान किसी भी हालत में जम्मू-कश्मीर पर कब्जा चाहता था, इसलिए उसकी अपनी सेना के साथ प्रत्यक्ष रूप से उरी, टिटवाल और कश्मीर के अन्य सेक्टरों में युद्ध के लिए पहुंच गई. कारगिल में भी पाकिस्तानी सेना ने धावा बोल दिया. इस ऊंचाई पर कारगिल और जोजिला दर्रे पर हमारे सैनिकों और टैंकों ने कमाल दिखाया और दुश्मन को भागने पर मजबूर कर दिया. इसके बाद लगभग-लगभग भारतीय सेना जीत चुकी थी, बस कुछ काम बाकी था, लेकिन
30 दिसम्बर 1947 को भारत के प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू संयुक्त राष्ट्र में इस मामले को ले गए, जिस पर खूब विचार-विमर्श हुआ और 13 अगस्त, 1948 को संयुक्त राष्ट्र ने प्रस्ताव पारित कर दिया था. इसके बाद 1 जनवरी 1949 को आखिरकार युद्धविराम की घोषणा कर दी गई थी.
राजनैतिक खामियों का नतीजा ‘पीओके’
जानकारों का मानना है कि जब भारतीय सेना ने इस युद्ध के दौरान कबाइलियों के द्वारा जम्मू कश्मीर के कब्जा किए गए लगभग 842,583 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र को दुबारा से वापस ले लिया था, तो ऐसे में भारत सरकार को युद्ध विराम की जल्दी नहीं दिखानी चाहिए थी. भारतीय सेना अच्छी स्थिति में थी. उसमें इतनी क्षमता थी की वह पाकिस्तान द्वारा कब्जा किए गए जम्मू-कश्मीर के एक-एक क्षेत्र पर वापसी कर सकती थी, लेकिन,
राजनैतिक जल्दीबाजी के चलते भारत को केवल जम्मू कश्मीर के महज 60 प्रतिशत भाग से संतोष करना पड़ा था और शेष भाग पाकिस्तान के कब्जे में चला गया था, जिसे आज ‘पीओके’ यानी पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर कहा जाता है.
कड़वी यादें
जानकारों की माने तो 14 महीने चले इस युद्ध में करीब 1500 भारतीय मारे गए और करीब 3500 घायल हो गए. वहीं करीब 6000 पाकिस्तानियों की युद्ध में जान गई और करीब 14 हजार घायल हो गए. इस युद्ध के बाद जम्मू-कश्मीर का दो तिहाई हिस्सा भारत में ही रहा जबकि एक तिहाई हिस्से पर आज भी पाकिस्तान का अवैध कब्जा है.
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