1947 और 1965 की लड़ाई में भारत के जाबांजों ने अपनी जाबाजी से पाकिस्तान को संदेश दिया था कि अपने नापाक इरादों में वह कभी भारत के सामने नहीं टिक सकता. उसे सुधरना होगा, अन्यथा अंजाम भुगतना होगा. इसके बावजूद पाकिस्तान ने 1971 में एक बार फिर से युद्ध की पहल की, जिसके परिणाम स्वरुप पाकिस्तान को बड़ी हार का सामना करना पड़ा और पूर्वी पाकिस्तान ने आजाद होकर बांग्लादेश का रुप ले लिया. इस पहल के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का नाम इतिहास के सुनहरे पन्नों में दर्ज किया गया. उनकी इच्छा शक्ति और सेना के पराक्रम के चलते ही बांग्लादेश की आज़ादी संभव हो सकी.
आखिर इस युद्ध के कारण क्या थे? और इसमें भारत कब शामिल होने को मजबूर हुआ. इस सहित और भी कई पहलुओं के बारे में जानने की कोशिश हमारे देश के वीरों को एक तरह से श्रद्धांजलि ही होगी:
कुछ इस तरह तैयार हुई युद्ध की पृष्ठभूमि
1970 के दौरान पाकिस्तान में चुनाव हुए, जिसमें पूर्वी पाकिस्तान आवामी लीग ने बड़ी संख्या में सीटें जीती और सरकार बनाने का दावा ठोक डाला, लेकिन पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के जुल्फिकार अली भुट्टो इस बात से सहमत नहीं थे, इसलिए उन्होंने विरोध करना शुरु कर दिया. कहा जाता है कि ऐसे में हालात इतने खराब हो गए कि सेना का प्रयोग करना पड़ा. इस सब में पूर्वी पाकिस्तान की आवामी लीग के शेख मुजीबुर रहमान को गिरफ्तार कर लिया गया. बस यहीं से शुरु हो गई पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच खींचतान. फिर देखते ही देखते विवाद बढ़ता गया और पूर्वी पाकिस्तान के लोग, पश्चिमी पाकिस्तान की सेना के अत्याचार से पीड़ित होकर पलायन को मजबूर हो गए.
इंदिरा गांधी का ‘प्रचंड’ रूप
पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच चल रहे विवाद के कारण इंदिरा गांधी के समय में एक बड़ी संख्या में पूर्वी पाकिस्तान से शरणार्थी भारत में आ चुके थे, जिन्हें भारत में पड़ोसी होने के नाते सुविधाएं दी जा रही थीं. यह पाकिस्तान को बिलकुल गवांंरा नहीं था. शरणार्थियों के आने से भारत पर दबाव बढ़ता ही जा रहा था. यहां तक कि पाकिस्तान ने भारत पर हमला करने की धमकियां देना तक शुरु कर दिया था. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई सारी कोशिशें की, ताकि कोई हल निकल आए और शरणार्थी वापस घरों को लौट जाएं, पर यह नहीं हो सका. फिर वही हुआ जिसका डर था. पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने अपने विरोध को बड़ा कर दिया. उन्होंने अपनी एक सेना बनाकर पश्चिमी पाकिस्तानी हुकूमत के खिलाफ मोर्चा खोल दिया, जिसे पाकिस्तान ने भारत समर्थित युद्ध माना. उनका मानना था कि भारत की शह पर उनका विरोध हो रहा है, इसलिए अपनी खुन्नस निकालने के लिए पाकिस्तान ने 3 दिसंबर 1971 को भारत पर हमला कर दिया. ऐसे में इंदिरा गाँधी ने माँ दुर्गा का रूप धारण किया और तमाम अंतर्राष्ट्रीय दबावों को दरकिनार करते हुए पाकिस्तान को सबक सिखाने की घोषणा कर दी.
पाकिस्तान को मुंह की खानी पड़ी
भारतीय सेना ने हर मोर्चे पर पाकिस्तान को कमजोर किया. कहीं भी नहीं लगा कि पाकिस्तानी सेना ने भारत को थोड़ा भी मुश्किल में डाला हो. यहां तक कि भारतीय नौसेना की एक टुकड़ी ने अपने प्राणों की परवाह न करते हुए कराची बंदरगाह के बिलकुल पास जाकर हमला किया, जिसके चलते भारतीय नौसेना पाकिस्तान के पश्चिमी मोर्चे पर अपना वर्चस्व बनाने में कामयाब रही थी.
इस युद्द में पाकिस्तान को अमेरिका और चीन का भी पूरा साथ मिला. उस वक्त की अमेरिकी सरकार ने तो पाकिस्तान का पक्ष लेते हुए अपनी नौसेना का 7वां बेड़ा भारत की ओर रवाना कर दिया था, जिससे भारत कमजोर पड़ सकता था, लेकिन जब तक अमेरिकी सेना पहुंचती भारतीय सेना अपना काम कर चुकी थी.
सेना बहुत आगे बढ़ चुकी थी, उसने इस युद्द को निर्णायक मोड़ पर पहुंचाते हुए पाकिस्तान की पनडुब्बी ‘गाजी’ को विशाखापट्टनम नौसैनिक अड्डे के पास ही डुबो डाला. इतिहास में पहली बार किसी नौसेना ने दुश्मन की नौसेना को एक सप्ताह के अंदर पूरी तरह से नेस्तनाबूद कर दिया था. अंतत: 16 दिसम्बर को पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में हुए इस युद्ध में पाक सेना को मुंह की खानी पड़ी थी.
पाकिस्तानी सेना का नेतृत्व कर रहे ले. जनरल एके नियाजी ने हार स्वीकार करते हुए अपने 93 हजार सैनिकों के साथ भारतीय सेना के कमांडर ले. जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने आत्मसमर्पण किया था. भारत की तरफ से जनरल सैम मानेकशॉ उस समय सेना प्रमुख थे. इस जंग के बाद विश्व मानचित्र पर नये देश ने रुप लिया, जिसे आज हम बांग्लादेश के नाम से जानते हैं.
इस जंग के भारतीय ‘हीरो’
वैसे तो हर युद्ध की तरह इस युद्ध में भी सेना के सैकड़ों जवानों ने अपनी वीरता का परिचय दिया, लेकिन इनमेंं भी कुछ नाम ऐसे थे, जिन्होंने अपनी क्षमता से बाहर जाकर देश को विजय दिलाई. पहला नाम था अलबर्ट एक्का का जिन्होंने दुश्मन के साथ लड़ते हुए अपनी इकाई के साथियों की रक्षा की थी. युद्ध के दौरान वो घायल हुए और 3 दिसम्बर 1971 को उन्होंने अपने प्राण गँवा दिए. मत्यु के बाद सरकार ने उन्हे परमवीर चक्र से नवाजा. दूसरा नाम था मेजर होशियार सिंह का जिन्होंने 3 ग्रेनेडियर्स की अगुवाई करते हुए अपना अद्भुत पराक्रम दिखाया, उन्होंने जम्मू कश्मीर की दूसरी ओर, शकरगड़ के पसारी क्षेत्र में जरवाल का मोर्चा फ़तह भी किया था. उन्हें भी परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया.
1971 में पाकिस्तान पर बड़ी जीत के बाद हर साल 16 दिसम्बर को ‘विजय दिवस’ के रुप में मनाया जाता है.इसी कड़ी में लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल, सेनाध्यक्ष सैम मानेकशॉ, कमांडर ले. जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा, निर्मलजीत सिंह सेखों, चेवांग रिनचैन एवं महेन्द्र नाथ मुल्ला जैसे कुछ और प्रमुख नाम हैं, जिन्होंने इस युद्ध में पाक को करारी हार देकर विजय की नई परिभाषा गढ़ी.
पाकिस्तान की हार के बड़े कारण:
- तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी फैसले लेने में मजबूत थीं.
- भारत की राजनीतिक डिप्लोमेसी, ब्यूरोक्रेसी और मिलिट्री में सामंजस्य बेहतर था, जबकि पाकिस्तान में सैनिक शासन होने की वजह से सब बिखरा-बिखरा था.
- भारतीय सेना की शुरूआत शानदार रही. उसने पूर्वी पाकिस्तान में महज तीन दिन में ही एयर फोर्स और नेवल विंग को पूरी तरह से बेकार कर दिया था, जिसके परिणामस्वरुप भारतीय पैराट्रूपर्स ढाका में उतरने में कामयाब रहे.
- पाकिस्तान में फैसले लेने की अनुमति केवल आला अफसरों के पास थी, जिस कारण जब तक उनके लिए निर्देश आते कि क्या करना है, तब तक भारतीय सेना अपना काम कर चुकी होती थी.
- पाकिस्तान को अंत तक भारत की रणनीति का पता नहीं चल पाया, वह जान ही नहीं पाए कि कब भारतीय सेना ने पैराट्रूपर्स की मदद से ढाका को घेर लिया. वहीं मुक्ति वाहिनी की मदद से भारतीय सेना, पश्चिमी पाकिस्तान के बार्डर से अंदर तक घुस गई.
- पाकिस्तान में आर्मी, नेवी और एयरफोर्स में सामंजस्य की कमी थी, जिस कारण तीनों संयुक्त रूप से कार्रवाई नहीं कर पाए, जबकि भारतीय सेना के तीनों अंगों ने एकजुट होकर होकर इस मिशन को पूरा किया.
- इसके अतिरिक्त पाकिस्तान इस युद्ध में अपने ही लोगों पर भारी अत्याचार (पूर्वी पाकिस्तान / बांग्लादेश निवासियों पर) करके नैतिक बल खो चुका था, जबकि भारतीय पक्ष का नैतिक स्तर काफी ऊँचा था.
Very Nice बांग्लादेश कब आजाद हुआ था? Thank You.
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