बचपन से हम और आप अपने पाठ्यक्रम में ढ़ेर सारी क्रांतियों के बारे में पढ़ते आ रहे हैं, फिर चाहे वह राजनीतिक क्रांतियां रही हों या सामाजिक क्रांतियां. राजनीतिक क्रांतियों का इतिहास उठाकर देखें तो हम पाएंगे कि इनसे सत्ता परिवर्तन ही हुए हैं, लेकिन इससे इतर देश की सामाजिक क्रांतियों ने समाज में हुए उत्थानों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है. आइये नज़र डालते हैं देश की ऐसी ही कुछ सामाजिक क्रातियों के बारे में जिन्होंने समाज की दिशा और दशा दोनों को बदल डाला:
कुरियन की ‘श्वेत क्रांंति’
आज हमेंं दूध पीना होता है तो हम आसानी से किसी दूध की दुकान पर महज़ कुछ पैसे देकर हासिल कर लेते हैं. आपको शायद यकीन न हो कि अपने देश में एक ऐसा दौर था जब दूध की एक-एक बूंद के लिए लोग परेशान रहते थे. वो तो भला हो उस दौर में जन्मे वर्गीज कुरियन का जिन्होंने दूध की समस्या को दूर करने के लिए एक सामाजिक मुहिम छेड़ी, जिसे आज हम श्वेत क्रांति के नाम से जानते हैं. कुरियन ने गुजरात को-ऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन की स्थापना करके पशुपालकों और किसानों को उनके हक़ से रु-ब-रु करवाया था. कुरियन ने भारतीय किसानों को सशक्त बनाने की दिशा में अपना जीवन समर्पित कर दिया था. भैंस के दूध से पहली बार पाउडर बनाने का श्रेय भी कुरियन को जाता है. उनके प्रयासों से ही दुनिया में पहली बार भैंस के दूध से पाउडर बनाया गया.
26 नवंबर 1921 को केरल के कोझिकोड में जन्मे वर्गीज कुरियन ने चेन्नई के लोयला कॉलेज से 1940 में विज्ञान में स्नातक किया था उसके बाद वह छात्र वृत्ति पर विदेश पढ़ने चले गए. वहाँ से लौटने के बाद उन्हें गुजरात के आणंद स्थित सरकारी क्रीमरी में काम करने का मौका मिला. लेकिन वे वहाँ से जल्दी ही कार्य मुक्त हो गए और उसके बाद छोटे मिल्क पाउडर कारखाने में डेयरी इंजीनियर के तौर पर काम करना चालू किये.
उन दिनों खेड़ा जिला सरकारी दुग्ध उत्पादक संघ एक निजी डेयरी पॉलसन के खिलाफ संघर्ष कर रहा था इससे प्रेरित होकर इन्होंने डेरी संघ की मदद करने का फैसला लिया. वर्गीज के साथ आ जाने से धीरे धीरे संघ ने खुद के प्रसंस्करण संयंत्र की स्थापना कर ली. बाद में अमूल ने इसका रुप ले लिया. वर्गीज के आंदोलन से जुड़ जाने के बाद बहुत सारे गांवों ने भी अमूल मॉडल को अपनाया. जिसका नतीजा यह निकला कि आज अमूल एशिया की सबसे बड़ी डेरी है. सिर्फ़ यही नहीं आज हम देश में हुई श्वेत क्रांति के चलते डेनमार्क जैसे देश को भी पीछे छोड़ते हुए दूध उत्पादन में सबसे आगे हैं.
स्वामीनाथन की ‘हरित क्रांति’
ढ़ेर सारी समस्याओं के साथ भारत ने भुखमरी का दंश भी झेला है. आजादी के बाग एक समय ऐसा भी आया जब देश में में अनाज संकट की स्थिति बनी. लोग दाने-दाने को मोहताज हो गए थे. सभी परेशान थे कि क्या किया जाए. फिर अचानक एमएस स्वामीनाथन नामक एक व्यक्ति ने हरित क्रांंति का राग छेड़ा. शुरुआत में लगा इससे क्या होगा, लेकिन देखते-देखते देश ने इसे अपना हिस्सा बना लिया.
लोगों ने पैदावार बढ़ाने के लिए स्वामीनाथन के दिए फॉर्मूले पर काम करना शुरू कर दिया. देखते ही देखते देश में अनाज का संकट खत्म सा हो गया. लेकिन स्वामीनाथन अभी कुछ और चाहते थे. उन्होंने इसी कड़ी में 1966 में मैक्सिको के बीजों को पंजाब की घरेलु किस्मों के साथ मिश्रित करके उच्च उत्पादक वाले गेहू के संकर बीज को विकसित किए.
जिसके चलते भारत को दुनिया में खाद्यान्न की सर्वाधिक कमी वाले देश के कलंक से उबारकर 25 वर्ष से कम समय में आत्मनिर्भर बना दिया था. उन्हें इस कार्य के लिए पूरे विश्व में बहुत ख्याति मिली थी. 1999 में टाइम पत्रिका ने उन्हें 20 वी सदी के सबसे प्रभावशाली लोगों की सूची में भी शामिल किया.
जल पुरुष की ‘जल क्रांति’
पानी हमारे जीवन की मूलभूत अवश्यकता है. इसके बावजूद देश के कई इलाके जैसे राजस्थान में जल संकट से जूझता रहा है. ढ़ेर सारी कोशिशें की गई इस संकट को खत्म करने की. इसी कड़ी में भारत के राजेंद्र सिंह ने राजस्थान में 1980 के दशक में पानी को लेकर काम करना शुरु किया था. उन्होंने बारिश के पानी को धरती के भीतर पहुंचाने की प्राचीन भारतीय पद्धति को ही आधुनिक तरीके से अपनाया था. इसमें छोटे-छोटे तालाबों का निर्माण किया जाता है, जो बारिश के पानी से लबालब भर जाते हैं और फिर इस पानी को धरती धीरे-धीरे सोख लेती है. शुरू में इस मुहीम में जल पुरुष के नाम से विख्यात राजेंद्र सिंह अकेले थे, लेकिन
उनकी मेहनत और लगन को देखकर गांव के लोग भी साथ आ गए और बाद में इन्होंने तरुण भारत संघ का गठन किया, जिसके चलते धीरे धीरे जल संचय पर काम आगे बढ़ता गया. इसके बाद तो पूरे राजस्थान में जोहड़ बनने लगे और बंजर पड़ी धरती हरियाली से लहलहाने लगी.
जानकारों की मानें तो अब तक जल संचय के लिए करीब साढ़े छह हजार जोहड़ों का निर्माण हो चुका है ,और राजस्थान के करीब 1000 गाँवों में पानी उपलब्ध हो गया है. कहते हैं जल पुरुष के प्रयासों से कई मृत नदियाँ जीवित हो उठी हैं. आज राजेंद्र सिंह की ये मुहीम समूचे भारत में फ़ैल गई हैं .दुनिया भर से लोगो ने उनके काम को सराहा हैं. राजेंद्र सिंह को स्टाकहोम में पानी का नोबेल पुरस्कार माने जाने वाले स्टॉकहोम वाटर प्राइज से भी नवाजा जा चुका है. इसके आलावा वर्ष 2008 में गार्डियन ने उन्हें 50 ऐसे लोगों की सूची में शामिल किया था जो पृथ्वी को बचा सकते हैं.
सुन्दरलाल बहुगुणा का ‘चिपको आंदोलन’
जरा सोचिये अगर आज पेड़-पौधे न होते तो क्या होता? क्या हम सब खुली हवा में सांस ले पाते? अगर पर्यावरण बचा हुआ है इसका श्रेय पर्यावरण विदों को भी जाता है. इसी कड़ी में, प्रसिद्ध पर्यावरणविद ‘चिपको आन्दोलन’ के प्रमुख वृक्षमित्र सुन्दरलाल बहुगुणा का नाम भी लिया जा सकता है, जिन्होंने वृक्षों की रक्षा के लिए व्यापक जंग लड़ी थी. जानकारों की माने तो यह लड़ाई उत्तराखंड के पहाड़ी में शुरू हुई थी. यहां के निवासियों ने पेड़ों को काटने के खिलाफ जंग छेड़ दी थी.
पुरुष हो या महिला सभी इस लड़ाई में थे. सभी पेड़ से चिपक कर खड़े हो गए थे. जिसके चलते पेड़ काटने गये ठेकेदारों को उल्टे पांव लौटना पड़ा था. उनकी इस मुहिम से देश ही नहीं वरन दुनिया भर के लोगों को पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरुक किया.
यह सुंदरलाल बहुगुणा की ही देन है कि जंगल को बचाने के लिए कर्नाटक व उड़ीसा जैसे देश के कई अन्य राज्यों में जो आंदोलन हो रहे हैं. यह आंदोलन कहीं न कहीं चिपको आंदोलन से प्रेरित हैं. बता दें कि पर्यावरण को बचाने के लिए ही 1990 में सुंदर लाल बहुगुणा ने टिहरी बांध का विरोध किया था. उनका कहना था कि 100 मेगावाट से अधिक क्षमता का बांध नहीं बनना चाहिए
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